पहाड़ों के लिए अभिशाप बनती मानसून की बारिश…
भारत में मानसून की बारिश के कारण चिलचिलाती गर्मी से कई प्रदेशों में लोगों को राहत जरूर मिली है लेकिन पहाड़ी इलाके के लोगों के लिए यह एक अभिशाप साबित…
भारत में मानसून की बारिश के कारण चिलचिलाती गर्मी से कई प्रदेशों में लोगों को राहत जरूर मिली है लेकिन पहाड़ी इलाके के लोगों के लिए यह एक अभिशाप साबित हो रही है। बीते कुछ सालों से पहाड़ों की बारिश भयावह साबित हो रही है।
हर साल मानसून आने के साथ भारत के पहाड़ी इलाके उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन, सड़कें धंसने, रास्ता बंद होने जैसी घटनाएं आम बात हैं. बारिश का मौसम इन इलाकों के लिए आफत लेकर आ रहा है।
आखिर क्या वजह है कि ऐसी घटनाओं में कमी आने की बजाए इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है।
डीडब्ल्यू से बातचीत में सामाजिक कार्यकर्ता और जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती कहते हैं, “पिछले पांच-सात सालों में इस तरह की घटनाएं बढ़ी हैं और पहाड़ों के लिए जो विकास मॉडल तैयार किया जा रहा है, वही इसकी वजह है” उत्तराखंड के जोशीमठ में साल 2023 के जनवरी महीने में 500 से भी ज्यादा घरों की दीवारों में बड़ी बड़ी दरारें पड़ गई थीं।
इसके बाद वहां कई परिवारों को विस्थापित करना पड़ा था।
जोशीमठ के ही निवासी अतुल सती कहते हैं, “यह इलाका साल भर ठंडा रहता है लेकिन इस साल यहां तापमान 32-35 डिग्री तक चला गया, जो हमारे लिए बहुत अनहोनी घटना थी।
जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी उससे फसल चक्र बदलेगा।
इससे हमारी हमारी फसलों और जीवन पर विपरीत असर पड़ेगा” सरकारी विकास का एक ही ढांचा सती कहते हैं, “सरकारों का रवैया पर्यावरण के लिए बहुत असंवेदनशील है।
उनके लिए विकास का मतलब है एकरूपता लाना यानी अहमदाबाद में आपके पास जैसा कॉरिडोर या रिवरफ्रंट है, वैसा ही आपको बनारस में भी चाहिए और वैसा ही आपको केदारनाथ में चाहिए, वैसा ही बद्रीनाथ में चाहिए।
लेकिन सौंदर्य विविधता में है ना कि एकरूपता में।
पहाड़ी इलाकों में किसी भी सरकारी काम या प्रोजेक्ट के दौरान प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान ना पहुंचे इसके लिए मानकों का होना जरूरी है।
सती कहते हैं कि उत्तराखंड के गठन के बाद से ही लोगों ने हमेशा से यह मांग की है कि यहां छोटे प्रोजेक्ट बनाए जाएं। हालांकि ऐसा हुआ नहीं उनकी जगह बड़े प्रोजेक्टों के आने के बाद यहां बड़े स्तर पर जंगलों की कटाई हुई, ज्यादा खनन हुआ. पहाड़ में कृषि भूमि का दायरा पहले ही कम है।
इसके बाद बड़ी परियोजनाओं की वजह से उसका दायरा और छोटा हो रहा है। भूगोल का असर पहाड़ों में आ रही आपदा के पीछे की वजहें ना सिर्फ प्राकृतिक हैं बल्कि वहां का भूगोल भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है।पर्यावरण कार्यकर्ता और रिसर्चर मानषी आशेर ने डीडब्ल्यू को बताया, “पहाड़ी इलाकों में विशेष रूप से हिमालय पार के इलाकों की मिट्टी दरदरी है. ऐसे इलाकों में भूस्खलन जैसी घटनाएं बहुत आम बात है।
साथ ही टेक्टॉनिक हलचल ज्यादा होने की वजह से जरा सा भूकंप आने पर भी भूस्खलन हो जाता है। उत्तराखंड के पांच और कस्बों में दरकने लगी जमीन उत्तराखंड में ऊपर की तरफ मौजूद 52 प्रतिशत इलाका सिस्मिक जोन 4 और 5 में पड़ता है जो इसे भूस्खलन के लिए संवेदनशील इलाका बनाता है।
इसके अलावा तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर ने भी हालिया घटनाओं में बढ़ोत्तरी की है।
साल 2021 में चमोली में ग्लेशियर टूटने की वजह से 200 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी।
जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार पहाड़ों के जिन हिस्सों में पहले बारिश नहीं होती थी अब वहां भी बारिश होने लगी है और जिन इलाकों में पहले थोड़ी बारिश हुआ करती थी वहां अब मूसलाधार बारिश हो रही है।
साथ ही यह भी देखा गया है कि बारिश या बर्फ गिरने की घटनाएं पहले की तुलना में कम हुई हैं लेकिन उनकी मात्रा तेजी से बढ़ी है।
16 जून 2013 को केदारनाथ में बादल फटने से आई बाढ़ ने ना सिर्फ हजारों लोगों को घरों को उजाड़ दिया था बल्कि कई लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी थी।
मानषी बताती हैं कि पहाड़ी इलाकों में सबसे ज्यादा नुकसान पहले हफ्ते की बारिश के दौरान ही देखा जाता है। इसकी वजह साल भर जमा हुआ मलबे है, जो एक प्रक्रिया के तहत हर साल जमा होता रहता है और एक चक्र की तरह चलता रहता है।
आपदा से बचने की तैयारी जरूरी पहाड़ों में आने वाली आपदा ना सिर्फ जान-माल का नुकसान करती है बल्कि इससे खेती की जमीनों का भी बड़े स्तर पर नुकसान होता है।
पहाड़ी इलाकों में खेती लायक जमीनें वैसी ही कम हैं और आपदाएं आने के बाद से उनका प्रतिशत और कम हुआ है।
जोशीमठ की घटना से दार्जिलिंग और सिक्किम में बढ़ी चिंता मानषी का कहना है कि इस समस्या से निपटने के लिए सरकार को पहाड़ी इलाकों में जमीन को कैसे इस्तेमाल करना है इसके लिए योजना बनाने की जरूरत है। इसके लिए पंचायतों और ग्राम सभाओं की मदद लेनी होगी.
आपदाओं को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन जरूरत है ऐसे कदम उठाने की जिससे सही समय पर उनका पता लगाकर उनसे होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। मानषी कहती हैं कि ऐसे स्थान का चुनाव किया जाना चाहिए जहां विकास के काम करने के अनुकूल परिस्थितियां हों।
उन्होंने बताया, “पार्वती वैली में जहां टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) का इस्तेमाल किया गया वहां पानी के चश्मे सूख गए और लोगों को पानी कि दिक्कतें होने लगीं।
इसलिए किसी भी काम को शुरू करने से पहले वहां भूवैज्ञानिक प्रभाव, आपदा जोखिम, पर्यावरण प्रभाव और सामाजिक प्रभाव का आकलन करना जरूरी है” पहाड़ों में बढ़ेगी बारिश जर्मनी के पोट्सडाम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट रिसर्च (पीआईके) और भारत के द एनर्जी एन्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) ने मिलकर एक रिसर्च किया है जिसके नतीजे “लॉक्डहाउसेज, फेलोलैंड्स: क्लाइमेट चेंज एंड माइग्रेशन इन उत्तराखंड, इंडिया” नाम की रिपोर्ट में हैं।
यह रिपोर्ट भविष्य में उत्तराखंड में होने वाली वर्षा पर प्रकाश डालती है. रिपोर्ट के अनुसार, 2021 से 2050 के बीच राज्य में सालाना बारिश में 6 से 8 प्रतिशित की वृद्धि होने का अनुमान है.यह बदलाव राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में असमान रूप से वितरित होगा, कुछ क्षेत्रों में दूसरों की तुलना में ज्यादा वृद्धि देखी जाएगी।
पर्यावरणविद और गंगा-आह्वान जन अभियान से जुड़े डॉ. हेमंत ध्यानी ने डीडब्ल्यू से कहा, “धामों को दामों में बदलने की होड़ ने हिमालयी क्षेत्रों में नुकसान को बढ़ाया है।
हमारी सरकार ने विदेशों में जाकर ये नारा तो दे दिया कि जो भी निर्माण हों वो आपदा और जलवायुरोधी होने चाहिए लेकिन उसका यहां खुद पालन नहीं किया गया।
ध्यानी बताते हैं कि हिमालय के सभी क्षेत्रों की अपनी वहन क्षमता है और इसे निर्धारित करने को लेकर अशोक कुमार राघव ने 1 सितंबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की थी।
वहन क्षमता पर जोर देते हुए ध्यानी कहते हैं कि पर्यटन से जुड़ी गतिविधियां वहन क्षमता के आधार पर ही तय होनी चाहिए लेकिन दस साल बीतने के बाद भी इस पर आज तक अमल नहीं किया गया है।
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