दलितों का दिल नहीं जीत पाई भाजपा

ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की चुनावी समीक्षा में सामने आई हकीकत भोपाल । मप्र में ग्वालियर-चंबल, विंध्य और बुंदेलखंड की करीब 40 विधानसभा सीटों पर दलित वोट निर्णायक भूमिका में होता है।…

दलितों का दिल नहीं जीत पाई भाजपा

ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की चुनावी समीक्षा में सामने आई हकीकत

भोपाल । मप्र में ग्वालियर-चंबल, विंध्य और बुंदेलखंड की करीब 40 विधानसभा सीटों पर दलित वोट निर्णायक भूमिका में होता है। इस वर्ग को साधने के लिए भाजपा लगातार कोशिश करती रहती है। लेकिन ग्वालियर-चंबल अंचल के दलित मतदाताओं का दिल भाजपा जीत नहीं पाई है। लोकसभा चुनाव परिणामों की समीक्षा में यह बात सामने आई है कि विधानसभा चुनाव की तरह ही लोकसभा चुनाव में भी ग्वालियर-चंबल संभाग में दलित वोट भाजपा को नहीं मिले। संगठन इस बात से हैरान है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित कांग्रेस के कई दलित नेताओं के भाजपा में आने के बाद भी ग्वालियर-चंबल में यह वर्ग भाजपा के साथ क्यों नहीं आ रहा है।
गौरतलब है कि मप्र की आबादी में अजा वर्ग की हिस्सेदारी 15.60 फीसदी है। 35 विधानसभा सीटें अजा वर्ग के लिए आरक्षित हैं। ग्वालियर चंबल अंचल की बात की जाए तो यहां का सबसे बड़ा सत्य एक ही है जाति और यही जीत का मंत्र होता है। यहां की जनता वोट डालने से पहले यह देखती है कि कौन सा प्रत्याशी किस जाति से है और किसे वोट डालना है। अंचल के चुनाव में जिस प्रत्याशी को सबसे अधिक जातियों का समर्थन मिलता है वही जीत कर आता है। ग्वालियर चंबल अंचल में अनुसूचित जाति वर्ग के वोट बैंक की अच्छी खासी तादाद है, खास तौर पर ग्वालियर चंबल अंचल की 34 विधानसभा सीटों में 26 सीटें ऐसी है जहां अनुसूचित जाति वर्ग का वोट चुनाव पर असर डालता है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने भले ही प्रदेश की सभी लोकसभा सीटों को जीत लिया है, लेकिन ग्वालियर-चंबल अंचल में दलित मतदाताओं ने उसे वोट नहीं दिया है।

 

अब भी भाजपा से दूरी बनाए हैं दलित मतदाता


ग्वालियर-चंबल अंचल में आने वाली चार लोकसभा सीटों गुना, भिंड, ग्वालियर और मुरैना को भाजपा ने भले ही जीत लिया है, लेकिन दलित मतदाताओं की उपेक्षा ने पार्टी की चिंता को बढ़ा दिया है। भिंड, ग्वालियर और मुरैना तीनों ही भाजपा की पारंपरिक सीटें हैं, लेकिन वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद से यहां दलित वर्ग के भाजपा से दूरी बना लेने से पार्टी को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। वहीं इस बार पार्टी को लोकसभा चुनाव में तीनों संसदीय सीटों ग्वालियर, मुरैना और भिंड को जीतने के लिए काफी पसीना बहाना पड़ा। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में दलित समुदाय के मतदाता हैं। पिछले कुछ वर्षों से यहां बहुजन समाज पार्टी की पकड़ कमजोर होने के बाद से यह वर्ग कांग्रेस के साथ चला गया है। मप्र की राजनीति भले ही द्विध्रुवीय हो, लेकिन बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश के कई अंचलों में दलित वर्ग पर कब्जा कर रखा है। सर्वाधिक प्रभाव वाला क्षेत्र ग्वालियर-चंबल है, यहां का दलित वर्ग लंबे समय से बहुजन समाज पार्टी के साथ रहा है। वर्ष 2018 में एट्रोसिटी एक्ट में हुए संशोधन के खिलाफ जब भारत बंद किया गया था, तब ग्वालियर- चंबल में इस आंदोलन में 8 लोग मारे गए थे और हजारों दलितों के विरुद्ध आपराधिक प्रकरण दर्ज किए गए थे। यही वह टर्निंग पाइंट था, जहां से दलित वर्ग बसपा का दामन छोड़ बड़ी संख्या में कांग्रेस में सम्मिलित हो गया था। ग्वालियर- चंबल में तब ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथों में कांग्रेस की कमान हुआ करती थी। इसी समर्थन से कांग्रेस ने 2018 में कमल नाथ के नेतृत्व में सरकार भी बना ली थी। बाद में सिंधिया तो भाजपा में आ गए लेकिन दलित मतदाता को वे भाजपा में लाने में सफल नहीं हो पाए। यही वजह है कि वर्ष 2023 के विधानसभा चुनाव और वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में भी ग्वालियर-चंबल के दलित वर्ग का भाजपा को समर्थन नहीं मिल पाया।

 योजनाएं नहीं जाति चुनावी मुद्दा


ग्वालियर- चंबल ऐसे क्षेत्र हैं, जहां सरकारी योजनाएं नहीं बल्कि जाति चुनावी मुद्दा रहता है। इन क्षेत्रों में निर्धन वर्ग में आने वाली पिछड़ी जातियों की संख्या बहुत ज्यादा है। इस वर्ग को साधने के लिए भाजपा ने योजनाओं का सहारा लिया है, लेकिन इस वर्ग के मतदाता बसपा या कांग्रेस के प्रति आकर्षित होता है। ग्वालियर-चंबल, दोनों क्षेत्रों में बहुजन समाज पार्टी का भी प्रभाव रहा है। पार्टी ने दलित वर्ग को भाजपा से जोडऩे के उद्देश्य से ही लाल सिंह आर्य को राष्ट्रीय अनुसूचित जाति मोर्चा का अध्यक्ष बनाया था। पार्टी का यह प्रयास भी असफल हो गया। हाल में हुए लोकसभा चुनाव में भी दलित वर्ग के वोट में कमी आई है। अब चुनावी समीक्षा में दलित वर्ग में कमजोर पैठ ने पार्टी को फिर चिंता में डाल दिया है। प्रदेश मंत्री भाजपा रजनीश अग्रवाल का कहना है कि तुलनात्मक दृष्टि से पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जाति वर्ग के बीच भारतीय जनता पार्टी की स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है। अनुसूचित जाति बहुल बूथों को जीतने की संख्या में वृद्धि हुई है। कई क्षेत्रों में अभी चुनौती है, जिसे संगठन ने आगामी लक्ष्य के रूप में लिया है। हमारा फोकस हर हारने वाले बूथ पर रहेगा।

हार का अंतर कम

दलित वोट का ही प्रभाव रहा है कि लोकसभा चुनाव में ग्वालियर चंबल अंचल में कांग्रेस ने जमकर मुकाबला किया है। अंचल की ग्वालियर, भिंड-दतिया और मुरैना-श्योपुर लोकसभा सीट पर भले ही भाजपा के उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है लेकिन कांग्रेस ने अपनी हार का अंतर कम कर लिया है। 2019 के चुनाव में तीनों सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार सवा लाख से डेढ़ लाख वोटों के अंतर से जीते थे। इस चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों की जीत 50 से 70 हजार के बीच रह गई है। अजा वर्ग के लिए सुरक्षित भिंड-दतिया सीट पर वर्तमान सांसद संध्या राय पर भाजपा ने भरोसा जताया और इस चुनाव में उन्हें फिर मौका दिया। संध्या राय अपना पिछला प्रदर्शन नहीं दोहरा पाईं। 2019 के चुनाव में संध्या राय ने कांग्रेस के देवाशीष जरारिया को एक लाख 99 हजार वोटों से हराया था। इस चुनाव में कांग्रेस ने देवाशीष जरारिया का टिकट काटकर संध्या के सामने मंझे हुए दलित नेता फूल सिंह बरैया को मैदान में उतारा। बरैया ने भाजपा से जमकर मुकाबला किया और संध्या की जीत को महज 63 हजार पर ही रोक दिया।