आदिवासियों ने भी नकारा पार्टियों के प्रत्याशियों को
नोटा ने बढ़ाई राजनीतिक दलों की चिंता भोपाल । मप्र में मतदाताओं ने इस बार हर लोकसभा सीट पर नोटा (इनमें से कोई नहीं)का उपयोग किया है। लेकिन जिस तरह…
नोटा ने बढ़ाई राजनीतिक दलों की चिंता
भोपाल । मप्र में मतदाताओं ने इस बार हर लोकसभा सीट पर नोटा (इनमें से कोई नहीं)का उपयोग किया है। लेकिन जिस तरह प्रदेश की आदिवासी बहुल सीटों पर मतदाताओं ने बढ़-चढक़र मतदान किया है, वह राजनीतिक दलों के लिए चिंता का कारण बन गया है। इसकी वजह यह है कि प्रदेश की दोनों पार्टियों का सबसे अधिक फोकस आदिवासी मतदाताओं पर रहा है। उसके बावजुद आदिवासी सीटों पर नोटा का बटन दबाकर मतदाताओं ने भाजपा-कांग्रेस की चिंता बढ़ा दी है।
चुनाव के दौरान प्रत्येक मतदाता को यह अधिकार है कि अपने पसंदीदा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करे। इतना ही नहीं अगर निर्धारित प्रत्याशियों की सूची में कोई मनपसंद प्रत्याशी उसे नजर नहीं आता है तो इसके लिए नोटा यानी उपरोक्त में से नहीं का इस्तेमाल किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में राइट टू रिजेक्ट के तहत यह अधिकार मतदाताओं को दिया था। जिसके बाद देश में 2014 के लोकसभा चुनाव से ईवीएम में प्रत्याशी की सूची में नोटा का बटन भी शामिल हो गया। 2024 के लोकसभा चुनाव में तीसरी बार इस बटन का उपयोग किया गया। भाजपा के प्रदेश मीडिया प्रभारी आशीष अग्रवाल का कहना है कि नोटा लोकतंत्र में चुनाव के मूल विचारों के विपरीत है। उपलब्ध में बेहतर को चुनकर जनप्रतिनिधि के रूप में भेजना ही स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। समाज को तोडऩे वाले और देश को कमजोर करने वाले तत्व नोटा को बढ़ावा देने का प्रयास करते हैं। भाजपा की सर्वव्यापी योजनाओं ने जीवन में बदलाव लाया है। यही कारण है कि पार्टी सभी 29 सीटें जीती हैं। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में पार्टी लगातार जागरुकता के काम कर रही है और इसे और बढ़ाया जाएगा। वहीं, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी के मीडिया सलाहकार केके मिश्रा का कहना है कि आदिवासी बहुल क्षेत्रों में नोटा का बढऩा वाकई चिंता का विषय है। हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि आदिवासी मतदाताओं में यह प्रवृत्ति क्यों हो रही है। सभी दलों को इस पर गहन चिंतन करना चाहिए।
छह सीटों पर नोटा को भरपूर वोट
अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए सुरक्षित सभी छह सीटों पर अन्य सीटों की तुलना में नोटा पर अधिक वोट हुआ है। जय युवा आदिवासी शक्ति संगठन समेत अन्य संगठनों ने प्रत्याशी पसंद न आने पर नोटा में वोट करने के लिए कहा था। वहीं, भाजपा और कांग्रेस के नेता आदिवासी बहुल क्षेत्रों में मतदाताओं को वोट का महत्व समझाने में नाकाम रहे। भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों ने आदिवासी बहुल क्षेत्रों पर फोकस किया था क्योंकि सुरक्षित छह सीटों के अलावा छिंदवाड़ा, सतना, बालाघाट समेत अन्य क्षेत्रों में ये परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इंदौर में कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी अक्षय कांति बम ने आखिरी दिन नाम वापस ले लिया था। इससे कांग्रेस चुनावी लड़ाई से बाहर हो गई। कांग्रेस ने किसी को समर्थन न देते हुए नोटा को वोट देने की अपील की थी। इंदौर में नोटा को 2,18,674 वोट मिले हैं। वहीं, अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए सुरक्षित सीट रतलाम को देखें तो वहां 31,735 वोट नोटा मिले। वह चौथे स्थान पर रहा। इसी तरह धार में भी नोटा को 15,651, खरगोन में 18,257, मंडला में 18,921, बैतूल में 20,322 और शहडोल में 19,361 वोट मिले यानी महाकोशल, विंध्य हो या फिर मालवा-निमाड़ अंचल सभी जगह आदिवासियों ने भाजपा-कांग्रेस के प्रत्याशियों को छोडकऱ नोटा को चुना। बालाघाट में 11,510, छिंदवाड़ा में 9093, सतना में 2,553 और सीधी में 4,216 मतदाताओं ने नोटा में वोट दिया। नोटा के बढ़ते प्रभाव को प्रत्याशियों और पार्टियों के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है।